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पतंजलि: योगसूत्र।।५।। (साधन पाद)

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. अनित्याशुचिदु:खानात्मसु नित्यशुचिसुखात्मख्याति: अविद्या ।।५।। अविद्या है---अनित्य को नित्य समझना, अशुद्ध को शुद्ध जानना, पीड़ा को सुख और अनात्म को आत्म जानना। . . अविद्या क्या है? इस शब्द का अर्थ है अज्ञान, लेकिन अविद्या कोई साधारण अज्ञान नहीं। इसे बहुत गहरे समझना होगा। अज्ञान है ज्ञान की कमी। अविद्या ज्ञान की कमी नहीं, बल्कि जागरूकता की कमी है। अज्ञान बहुत आसानी से मिट सकता है; तुम ज्ञान उपार्जित कर सकते हो। यह केवल स्मृति के ही प्रशिक्षण की बात होती है। ज्ञान यांत्रिक होता है; किसी जागरूकता की जरूरत नहीं होती है। अविद्या है जागरूकता की कमी। व्यक्ति को ज्यादा और ज्यादा बढ़ना होता है चेतना की ओर, न कि ज्यादा ज्ञान की ओर। केवल तभी अविद्या मिट सकती है। अविद्या ही है जिसे गुरजिएफ 'आध्यात्मिक निद्रा' कहा करता था। व्यक्ति घूमता-फिरता है, जीता है, मरता है, न जानते हुए कि वह क्यों जीता है... न जानते हुए कि वह आया कहां से और किसलिये। गुरजिएफ इसे कहते हैं 'निद्रा', पतंजलि इसे कहते हैं, 'अविद्या'। दोनों का एक ही अर्थ है। तुम नहीं जानते तुम हो क्यों! तुम यह

पतंजलि योगसूत्र---चौथी बैठक।

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. तप:स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोग:।।१।। क्रियायोग एक प्रायोगिक, प्राथमिक योग है और वह संगठित हुआ है---सहज संयम (तप), स्वाध्याय और ईश्वर के प्रति समर्पण से। . समाधिभावनार्थ: क्लेशतनूकरणार्थश्च।।२।। . क्रियायोग का अभ्यास, क्लेश को घटा देता है और समाधि की ओर ले जाता है। . अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशा: क्लेशा:।।३।। दुख उत्पन्न होने के कारण हैं: जागरूकता की कमी, अहंकार, मोह, घृणा, जीवन से चिपके रहना और मृत्यु-भय। . अविद्या क्षेत्रमुत्तरेषां प्रसुप्ततनुविच्छिन्नोदाराणाम्।।४।। चाहे वे प्रसुप्तता की, क्षीणता की, प्रत्यावर्तन की या फैलाव की अवस्थाओं में हो, दुख के दूसरे सभी कारण क्रियांवित होते हैं---जागरूकता के अभाव द्वारा ही। . . ये तीन चरण दुख घटाते हैं और तुम्हें समाधि की ओर ले जाते हैं, परम की ओर, जिसके बाद कोई चीज अस्तित्व नहीं रखती है। जब तुम परमात्मा के प्रति समर्पित होते हो, परमात्मा हो जाते हो; वही होती है समाधि। दुख उत्पन्न होने के कारण हैं: जागरूकता की कमी, अहंकार, मोह, घृणा, जीवन से चिपके रहना और मृत्यु-भय। वस्तुतः केवल अहंकार ही होता है कारण। आत्म

पतंजलि योगसूत्र। तीसरी बैठक।

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. तप:स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोग:।।१।। क्रियायोग एक प्रायोगिक, प्राथमिक योग है और वह संघटित हुआ है---सहज संयम (तप), स्वाध्याय और ईश्वर के प्रति समर्पण से। . . . . . . . . . . . . . . . . . . . (योगसूत्र, साधनपाद) . '. . . सहज-संयम, स्वाध्याय और ईश्वर के प्रति समर्पण. . .।' ये सब अंतर्संबंधित हैं। यदि तुम सहज होते हो तो तुम स्वयं का निरीक्षण कर पाओगे। एक जटिल आदमी स्वयं का निरीक्षण नहीं कर सकता है, क्योंकि वह बटा हुआ होता है, उसके चारों ओर बहुत सारी चीजें होती हैं; बहुत सारे विचार, और बहुत सारी समस्याएं उठ रही होती हैं। उस भीड़ में कठिन होता है स्वाध्याय को पाना। संयमी आदमी बैठता है, देखता है अपनी ओर। बंद कर लेता है अपनी आंखें; अपनी अंतस सत्ता को ध्यान से देखता है। कहीं कोई भीड़ नहीं, कुछ ज्यादा करने को नहीं । सहज बातों की एक गुणवत्ता होती है कि उन्हें करते समय भी तुम स्वयं का अध्ययन कर सकते हो। पतंजलि जो अर्थ करते हैं स्वाध्याय का, वही अर्थ करते हैं गुरजिएफ स्व-स्मरण का, या जिसे बुद्ध कहते हैं सम्यक-बोध, या जिसे जीससकहते हैं ज्यादा सजग हो जाना, या कि जो अर्

पतंजलि योगसूत्र। दूसरी बैठक।।

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. दूसरी बैठक। --- तप: स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोग:।।१।। क्रियायोग एक प्रायोगिक, प्राथमिक योग है और वह संगठित हुआ है---सहज संयम (तप), स्वाध्याय और ईश्वर के प्रति समर्पण से। . . पहला शब्द है---सहज-संयम। स्व-पीड़कों ने सहज-संयम को स्व-पीड़ा में बदल दिया। वे सोचते हैं कि जितनी ज्यादा पीड़ा तुम देह को पहुंचाते हो, उतने ज्यादा तुम आध्यात्मिक बनते हो। यही समझ होती है एक स्व-पीड़क की। देह को पीड़ा पहुंचाना कोई मार्ग नहीं । उत्पीड़न आक्रामक होता है। चाहे तुम दूसरों को पीड़ा पहुंचाओ या कि स्वयं को, यह बात ही आक्रामक होती है; और आक्रामकता कभी धार्मिक नहीं हो सकती है। पहली बात: ईश्वर ने क्यों दिया तुम्हें शरीर? उत्पीड़न के लिये नहीं, बल्कि इसके विपरीत, संवेदनाओं को, संवेदनशीलता को, इंद्रियों को--आनंदित होने के लिये---उत्पीड़ित होने के लिये नहीं। संवेदनशीलता के द्वारा जागरूकता विकसित होती है। एक मुरदा शरीर के द्वारा तुम कैसे अनुभव कर सकते हो अस्तित्व के आशीष को? कैसे तुम अनुभव कर सकते हो, अनुग्रह की वर्षा को जो कि हर क्षण घट रही है। धार्मिक आदमी बनने के लिये कम की नहीं ज्यादा

पतंजलि योगसूत्र। पहली बैठक।

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. तप: स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोग:।।१।। क्रियायोग एक प्रयोगिक, प्राथमिक योग है और वह संघटित हुआ है---सहज संयम (तप), स्वाध्याय और ईश्वर के प्रति समर्पण से। . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . (योगसूत्र, साधनपाद) . पतंजलि पर चर्चा से पहले कुछ बातें कर लेना जरूरी लग रहा है। क्योंकि यह व्याख्या पहले की गयी व्याख्याओं से अलग हट के हो सकती है। सामान्य मनुष्यता को दो मूलभूत प्रकारों में बांटा जा सकता है: एक तो है पर-पीड़क और दूसरा है स्व-पीड़क। पर-पीड़क आनंद पाता है दूसरों को पीड़ा पहुंचाकर और स्व-पीड़क आनंदिद होता है स्वयं को पीड़ा पहुंचा कर। निसंदेह दूसरों को पीड़ा देने वाला आकर्षित होता है राजनीति की ओर। वहां संभावना होती है, दूसरों को उत्पीड़ित करने का अवसर होता है। या वह आकर्षित होता है वैज्ञानिक खोज की ओर, विशेषकर चिकित्सा-शास्त्र की खोजकी ओर। वहां प्रयोग के नाम पर एक संभावना होती है, मासूम जंतुओं को यातना देने की, रोगियों, मुर्दा और जीवंत शरीरों को उत्पीड़ित करने की। देश के नाम पर, समाज, राष्ट्र, क्रांति के नाम पर, सत्य की खोज के नाम पर, दूसरों को सुधा